Grih Neeti – Maansarovar Two Download PDF | गृह-नीति-मुंशी प्रेमचन्द

पढ़िए मुंशी प्रेमचन्द के कहानी संग्रह मानसरोवर भाग 2 की गृह-नीति कहानी। Read grih neeti maansarovar two written by Munsh Premchand and download PDF.

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जब माँ, बेटे से बहू की शिकायतों का दफ्तर खोल देती है और यह सिलसिला किसी तरह खत्म होते नजर नहीं आता, तो बेटा उकता जाता है और दिन-भर की थकान के कारण कुछ झुँझलाकर माँ से कहता है,
‘तो आखिर तुम मुझसे क्या करने को कहती हो अम्माँ ? मेरा काम स्त्री को शिक्षा देना तो नहीं है। यह तो तुम्हारा काम है ! तुम उसे डाँटो, मारो,जो सजा चाहे दो। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात हो सकती है कि तुम्हारे प्रयत्न से वह आदमी बन जाय ? मुझसे मत कहो कि उसे सलीका नहीं है, तमीज नहीं है, बे-अदब है। उसे डाँटकर सिखाओ।’
माँ -‘वाह, मुँह से बात निकालने नहीं देती, डाटूँ तो मुझे ही नोच खाय। उसके सामने अपनी आबरू बचाती फिरती हूँ, कि किसी के मुँह पर मुझे कोई अनुचित शब्द न कह बैठे। बेटा तो फिर इसमें मेरी क्या खता है ? ‘मैं तो उसे सिखा नहीं देता कि तुमसे बे-अदबी करे !’
माँ-‘तो और कौन सिखाता है ?’

बेटा -‘तुम तो अन्धेर करती हो अम्माँ !’

माँ -‘अन्धेर नहीं करती, सत्य कहती हूँ। तुम्हारी ही शह पाकर उसका दिमाग बढ़ गया है। जब वह तुम्हारे पास जाकर टेसुवे बहाने लगती है, तो कभी तुमने उसे डाँटा, कभी समझाया कि तुझे अम्माँ का अदब करना चाहिए ? तुम तो खुद उसके गुलाम हो गये हो। वह भी समझती है, मेरा पति कमाता है, फिर मैं क्यों न रानी बनूँ, क्यों किसी से दबूँ ? मर्द जब तक शह न दे, औरत का इतना गुर्दा हो ही नहीं सकता।’

बेटा -‘तो क्या मैं उससे कह दूं कि मैं कुछ नहीं कमाता, बिलकुल निखट्टू हूँ ? क्या तुम समझती हो, तब वह मुझे जलील न समझेगी ? हर एक पुरुष चाहता है कि उसकी स्त्री उसे कमाऊ, योग्य, तेजस्वी समझे और सामान्यत: वह जितना है, उससे बढ़कर अपने को दिखाता है। मैंने कभी नादानी नहीं की, कभी स्त्री के सामने डींग नहीं मारी; लेकिन स्त्री की दृष्टि में अपना सम्मान खोना तो कोई भी न चाहेगा।’
माँ -‘तुम कान लगाकर, ध्यान देकर और मीठी मुस्कराहट के साथ उसकी बातें सुनोगे, तो वह क्यों न शेर होगी ? तुम खुद चाहते हो कि स्त्री के हाथों मेरा अपमान कराओ। मालूम नहीं, मेरे किन पापों का तुम मुझे यह दंड दे रहे हो। किन अरमानों से, कैसे-कैसे कष्ट झेलकर, मैंने तुम्हें पाला। खुद नहीं पहना, तुम्हें पहनाया; खुद नहीं खाया, तुम्हें खिलाया। मेरे लिए तुम उस मरनेवाली की निशानी थे और मेरी सारी अभिलाषाओं का केन्द्र। तुम्हारी शिक्षा पर मैंने अपने हजारों के आभूषण होम कर दिये। विधवा के पास दूसरी कौन-सी निधि थी ? इसका तुम मुझे यह पुरस्कार दे रहे हो?’

बेटा -‘मेरी समझ में नहीं आता कि आप मुझसे चाहती क्या हैं ? आपके उपकारों को मैं कब मेट सकता हूँ ? आपने मुझे केवल शिक्षा ही नहीं दिलायी, मुझे जीवन-दान दिया, मेरी सृष्टि की। अपने गहने ही नहीं होम किये, अपना रक्त तक पिलाया। अगर मैं सौ बार अवतार लूँ, तो भी इसका बदला नहीं चुका सकता। मैं अपनी जान में आपकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करता, यथासाधय आपकी सेवा में कोई बात उठा नहीं रखता; जो कुछ पाता हूँ, लाकर आपके हाथों पर रख देता हूँ; और मुझसे क्या चाहती हैं? और मैं कर ही क्या सकता हूँ ? ईश्वर ने हमें तथा आपको और सारे संसार को पैदा किया। उसका हम उसे क्या बदला देते हैं ? क्या बदला दे सकते हैं ? उसका नाम भी तो नहीं लेते। उसका यश भी तो नहीं गाते। इससे क्या उसके उपकारों का भार कुछ कम हो जाता है ? माँ के बलिदानों का प्रतिशोध कोई बेटा नहीं कर सकता, चाहे वह भू-मण्डल का स्वामी ही क्यों न हो। ज्यादा-से-ज्यादा मैं आपकी दिलजोई ही तो कर सकता हूँ और मुझे याद नहीं

आता कि मैंने कभी आपको असन्तुष्ट किया हो।’

माँ -‘तुम मेरी दिलजोई करते हो ! तुम्हारे घर में मैं इस तरह रहती हूँ जैसे कोई लौंडी। तुम्हारी बीवी कभी मेरी बात भी नहीं पूछती। मैं भी कभी बहू थी। रात को घंटे-भर सास की देह दबाकर, उनके सिर में तेल

डालकर, उन्हें दूध पिलाकर तब बिस्तर पर जाती थी। तुम्हारी स्त्री नौ बजे अपनी किताबें लेकर अपनी सहनची में जा बैठती है, दोनों खिड़कियाँ खोल लेती है और मजे से हवा खाती है। मैं मरूँ या जीऊँ, उससे मतलब नहीं,

इसीलिए मैंने पाला था ?’

बेटा -‘तुमने मुझे पाला था, तो यह सारी सेवा मुझसे लेनी चाहिए थी, मगर तुमने मुझसे कभी नहीं कहा,। मेरे अन्य मित्र भी हैं। उनमें भी मैं किसी को माँ की देह में मुक्कियाँ लगाते नहीं देखता। आप मेरे कर्तव्य का भार

मेरी स्त्री पर क्यों डालती हैं ? यों अगर वह आपकी सेवा करे, तो मुझसे ज्यादा प्रसन्न और कोई न होगा। मेरी आँखों में उसकी इज्जत दूनी हो जायेगी। शायद उससे और ज्यादा प्रेम करने लगूँ। लेकिन अगर वह आपकी सेवा नहीं करती, तो आपको उससे अप्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है। शायद उसकी जगह मैं होता, तो मैं भी ऐसा ही करता। सास मुझे अपनी लड़की की तरह प्यार करती, तो मैं उसके तलुए सहलाता, इसलिए नहीं कि वह मेरे पति की माँ होती, बल्कि इसलिए कि वह मुझसे मातृवत् स्नेह करती, मगर मुझे खुद यह बुरा लगता है कि बहू सास के पाँव दबाये। कुछ दिन पहले स्त्रियाँ पति के पाँव दबाती थीं। आज भी उस प्रथा का लोप नहीं हुआ है, लेकिन मेरी पत्नी मेरे पाँव दबाये, तो मुझे ग्लानि होगी। मैं उससे कोई ऐसी खिदमत नहीं

लेना चाहता, जो मैं उसकी भी न कर सकूँ। यह रस्म उस जमाने की यादगार है, जब स्त्री पति की लौंडी समझी जाती थी ! अब पत्नी और पति दोनों बराबर हैं। कम-से-कम मैं ऐसा ही समझता हूँ।’

माँ -‘तो मैं कहती हूँ कि तुम्हीं ने उसे ऐसी-ऐसी बातें पढ़ाकर शेर कर दिया है। तुम्हीं मुझसे बैर साध रहे हो। ऐसी निर्लज्ज, ऐसी बदजबान, ऐसी टर्री, फूहड़ छोकरी संसार में न होगी ! घर में अक्सर महल्ले की बहनें मिलने आती रहती हैं। यह राजा की बेटी न जाने किन गँवारों में पली है कि किसी का भी आदर-सत्कार नहीं करती। कमरे से निकलती तक नहीं। कभी-कभी जब वे खुद उसके कमरे में चली जाती हैं, तो भी यह गधी चारपाई से नहीं उठती। प्रणाम तक नहीं करती, चरण छूना तो दूर की बात है।’

बेटा -‘वह देवियाँ तुमसे मिलने आती होंगी। तुम्हारे और उनके बीच में न-जाने क्या बातें होती हों, अगर तुम्हारी बहू बीच में आ कूदे तो मैं उसे बदतमीज कहूँगा। कम-से-कम मैं तो कभी पसन्द न करूँगा कि जब मैं अपने मित्रों से बातें कर रहा हूँ, तो तुम या तुम्हारी बहू वहाँ जाकर खड़ी हो जाय। स्त्री भी अपनी सहेलियों के साथ बैठी हो, तो मैं वहाँ बिना बुलाये न जाऊँगा। यह तो आजकल का शिष्टाचार है।’

माँ -‘तुम तो हर बात में उसी का पक्ष करते हो बेटा, न-जाने उसने कौन-सी जड़ी सुँघा दी है तुम्हें। यह कौन कहता है कि वह हम लोगों के बीच में आ कूदे, लेकिन बड़ों का उसे कुछ तो आदर-सत्कार करना चाहिए।’

बेटा -‘क़िस तरह ?’

माँ -‘आकर अंचल से उसके चरण छुए, प्रणाम करे, पान खिलाये, पंखा झले। इन्हीं बातों से बहू का आदर होता है। लोग उसकी प्रशंसा करते हैं। नहीं तो सब-की-सब यही कहती होंगी कि बहू को घमण्ड हो गया है, किसी से सीधे मुँह बात नहीं करती !

बेटा (विचार करके) ‘हाँ, यह अवश्य उसका दोष है। मैं उसे समझा दूंगा।’

माँ-‘(प्रसन्न होकर), ‘तुमसे सच कहती हूँ बेटा, चारपाई से उठती तक नहीं, सब औरतें थुड़ी-थुड़ी करती हैं, मगर उसे तो शर्म जैसे छू ही नहीं गयी और मैं हूँ, कि मारे शर्म के मरी जाती हूँ।’

बेटा -‘यही मेरी समझ में नहीं आता कि तुम हर बात में अपने को उसके कामों की जिम्मेदार क्यों समझ लेती हो ? मुझ पर दफ्तर में न-जाने कितनी घुड़कियाँ पड़ती हैं; रोज ही तो जवाब-तलब होता है, लेकिन तुम्हें

उलटे मेरे साथ सहानुभूति होती है। क्या तुम समझती हो, अफसरों को मुझसे कोई बैर है, जो अनायास ही मेरे पीछे पड़े रहते हैं, या उन्हें उन्माद हो गया है, जो अकारण ही मुझे काटने दौड़ते हैं ? नहीं, इसका कारण यही है कि मैं अपने काम में चौकस नहीं हूँ। गल्तियाँ करता हूँ, सुस्ती करता हूँ,लापरवाही करता हूँ। जहाँ अफसर सामने से हटा कि लगे समाचारपत्र पढ़ने या ताश खेलने। क्या उस वक्त हमें यह खयाल नहीं रहता कि काम पड़ा हुआ है। और यह साहब डाँट ही तो बतायेंगे, सिर झुकाकर सुन लेंगे, बाधा टल जायगी।पर ताश खेलने का अवसर नहीं है, लेकिन कौन परवाह करता है। सोचते हैं, तुम मुझे दोषी समझकर भी मेरा पक्ष लेती हो और तुम्हारा बस चले, तो हमारे बड़े बाबू को मुझसे जवाब-तलब करने के अभियोग में कालेपानी भेज

दो।’

माँ -‘(खिलकर), ‘मेरे लड़के को कोई सजा देगा, तो क्या मैं पान-फूल से उसकी पूजा करूँगी ?’

बेटा -‘हरेक बेटा अपनी माता से इसी तरह की कृपा की आशा रखता है और सभी माताएँ अपने लड़कों के ऐबों पर पर्दा डालती हैं। फिर बहुओं की ओर से क्यों उनका ह्रदय इतना कठोर हो जाता है, यह मेरी समझ में

नहीं आता। तुम्हारी बहू पर जब दूसरी स्त्रियाँ चोट करें, तो तुम्हारे मातृ-स्नेह का यह धर्म है कि तुम उसकी तरफ से क्षमा माँगो, कोई बहाना कर दो, उनकी नजरों में उसे उठाने की चेष्टा करो। इस तिरस्कार में तुम क्यों उनसे सहयोग करती हो ? तुम्हें क्यों उसके अपमान में मजा आता है ?मैं भी तो हरेक ब्राह्मण या बड़े-बूढ़े का आदर-सत्कार नहीं करता। मैं किसी ऐसे व्यक्ति के सामने सिर झुका ही नहीं सकता जिससे मुझे हार्दिक श्रद्धा न हो। केवल सफेद बाल, सिकुड़ी हुई खाल, पोपला मुँह और झुकी हुई कमर किसी को आदर का पात्र नहीं बना देती और न जनेऊ या तिलक या पण्डित और शर्मा की उपाधि ही भक्ति की वस्तु है। मैं लकीर-पीटू सम्मान को नैतिक अपराध समझता हूँ। मैं तो उसी का सम्मान करूँगा जो मनसा-वाचा-कर्मणा हर पहलू से सम्मान के योग्य है। जिसे मैं जानता हूँ कि मक्कारी, स्वार्थ-साधन और निन्दा के सिवा और कुछ नहीं करता, जिसे मैं जानता हूँ कि रिश्वत और सूद तथा खुशामद की कमाई खाता है, वह अगर ब्रह्मा की आयु लेकर

भी मेरे सामने आये, तो भी मैं उसे सलाम न करूँ। इसे तुम मेरा अहंकार कह सकती हो। लेकिन मैं मजबूर हूँ, जब तक मेरा दिल न झुके, मेरा सिर भी न झुकेगा। मुमकिन है, तुम्हारी बहू के मन में भी उन देवियों की ओर से अश्रद्धा के भाव हों। उनमें से दो-चार को मैं भी जानता हूँ। हैं वे सब बड़े घर की; लेकिन सबके दिल छोटे, विचार छोटे। कोई निन्दा की पुतली है, तो कोई खुशामद में युक्त, कोई गाली-गलौज में अनुपम। सभी रूढ़ियों की गुलाम ईर्ष्या-द्वेष से जलने वाली। एक भी ऐसा नहीं, जिसने अपने घर को नरक का नमूना न बना रखा हो। अगर तुम्हारी बहू ऐसी औरतों के आगे सिर नहीं झुकाती, तो मैं उसे दोषी नहीं समझता।’
माँ -‘अच्छा, अब चुप रहो बेटा, देख लेना तुम्हारी यह रानी एक दिन तुमसे चूल्हा न जलवाये और झाडू न लगवाये, तो सही। औरतों को बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं होता। इस निर्लज्जता की भी कोई हद है, कि बूढ़ी

सास तो खाना पकाये और जवान बहू बैठी उपन्यास पढ़ती रहे।’

बेटा -‘बेशक यह बुरी बात है और मैं हर्गिज नहीं चाहता कि तुम खाना पकाओ और वह उपन्यास पढ़े चाहे वह उपन्यास प्रेमचंदजी ही के क्यों न हों;लेकिन यह भी तो देखना होगा कि उसने अपने घर कभी खाना नहीं

पकाया। वहाँ रसोइया महाराज है। और जब चूल्हे के सामने जाने से उसके सिर में दर्द होने लगता है, तो उसे खाना पकाने के लिए मजबूर करना उस पर अत्याचार करना है। मैं तो समझता हूँ ज्यों-ज्यों हमारे घर की दशा का उसे ज्ञान होगा, उसके व्यवहार में आप-ही-आप इस्क्ताह होती जायगी। यह उसके घरवालों की गलती है, कि उन्होंने उसकी शादी किसी धनी घर में नहीं की। हमने भी यह शरारत की कि अपनी असली हालत उनसे छिपायी और यह प्रकट किया कि हम पुराने रईस हैं। अब हम किस मुँह से यह कह सकते

हैं कि तू खाना पका, या बरतन माँज अथवा झाड़ू लगा ? हमने उन लोगों से छल किया है और उसका फल हमें चखना पड़ेगा। अब तो हमारी कुशल इसी में है कि अपनी दुर्दशा को नम्रता, विनय और सहानुभूति से ढॉकें और उसे अपने दिल को यह तसल्ली देने का अवसर दें कि बला से धन नहीं मिला, घर के आदमी तो अच्छे मिले। अगर यह तसल्ली भी हमने उससे छीन ली, तो तुम्हीं सोचो, उसको कितनी विदारक वेदना होगी ! शायद वह हम लोगों की सूरत से भी घृणा करने लगे।’

माँ-‘उसके घरवालों को सौ दफे गरज थी, तब हमारे यहाँ ब्याह किया। हम कुछ उनसे भीख माँगने गये थे ?

बेटा -‘उनको अगर लड़के की गरज थी, तो हमें धन और कन्या दोनों की गरज थी।

माँ -‘यहाँ के बड़े-बड़े रईस हमसे नाता करने को मुँह फैलाये हुए थे।’

बेटा -‘इसीलिए कि हमने रईसों का स्वाँग बना रखा है। घर की असली हालत खुल जाय, तो कोई बात भी न पूछे !’

माँ -‘तो तुम्हारे ससुरालवाले ऐसे कहाँ के रईस हैं। इधर जरा वकालत चल गयी, तो रईस हो गये, नहीं तो तुम्हारे ससुर के बाप मेरे सामने चपरासगीरी करते थे। और लड़की का यह दिमाग कि खाना पकाने से सिर में दर्द होता है। अच्छे-अच्छे घरों की लड़कियाँ गरीबों के घर आती हैं और घर की हालत देखकर वैसा ही बर्ताव करती हैं। यह नहीं कि बैठी अपने भाग्य को कोसा करें। इस छोकरी ने हमारे घर को अपना समझा ही नहीं।

बेटा -‘ज़ब तुम समझने भी दो। जिस घर में घुड़कियों, गालियों और कटुताओं के सिवा और कुछ न मिले, उसे अपना घर कौन समझे ? घर तो वह है जहाँ स्नेह और प्यार मिले। कोई लड़की डोली से उतरते ही सास को

अपनी माँ नहीं समझ सकती। माँ तभी समझेगी, जब सास पहले उसके साथ माँ का-सा बर्ताव करे, बल्कि अपनी लड़की से ज्यादा प्रिय समझे।’

माँ -‘अच्छा, अब चुप रहो। जी न जलाओ। यह जमाना ही ऐसा है कि लड़कों ने स्त्री का मुँह देखा और उसके गुलाम हुए। ये सब न-जाने कौन-सा मंतर सीखकर आती हैं। यह बहू-बेटी के लच्छन हैं कि पहर दिन चढ़े सोकर उठें ? ऐसी कुलच्छनी बहू का तो मुँह न देखे।’

बेटा -‘मैं भी तो देर में सोकर उठता हूँ, अम्माँ। मुझे तो तुमने कभी नहीं कोसा।’

माँ -‘ तुम हर बात में उससे अपनी बराबरी करते हो ?’

बेटा -‘यह उसके साथ घोर अन्याय है; क्योंकि जब तक वह इस घर को अपना नहीं समझती, तब तक उसकी हैसियत मेहमान की है और मेहमान की हम खातिर करते हैं, उसके ऐब नहीं देखते।’

माँ -‘ईश्वर न करे कि किसी को ऐसी बहू मिले !’

बेटा -‘तो वह तुम्हारे घर में रह चुकी।’

माँ -‘क्या संसार में औरतों की कमी है ?

बेटा -‘औरतों की कमी तो नहीं; मगर देवियों की कमी जरूर है !’

माँ -‘नौज ऐसी औरत। सोने लगती है, तो बच्चा चाहे रोते-रोते बेदम हो जाय, मिनकती तक नहीं। फूल-सा बच्चा लेकर मैके गयी थी, तीन महीने में लौटी, तो बच्चा आधा भी नहीं है।’
बेटा -‘तो क्या मैं यह मान लूँ कि तुम्हें उसके लड़के से जितना प्रेम है, उतना उसे नहीं है ? यह तो प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। और मान लो,वह निरमोहिन ही है, तो यह उसका दोष है। तुम क्यों उसकी जिम्मेदारी

अपने सिर लेती हो ? उसे पूरी स्वतन्त्रता है, जैसे चाहे अपने बच्चे को पाले, अगर वह तुमसे कोई सलाह पूछे, प्रसन्न-मुख से दे दो, न पूछे तो समझ लो, उसे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है। सभी माताएँ अपने बच्चे को प्यार करती हैं और वह अपवाद नहीं हो सकती।’

माँ -‘तो मैं सबकुछ देखूँ, मुँह न खोलूँ ? घर में आग लगते देखूँ और चुपचाप मुँह में कालिख लगाये खड़ी रहूँ ?’

बेटा -‘तुम इस घर को जल्द छोड़नेवाली हो, उसे बहुत दिन रहना है। घर की हानि-लाभ की जितनी चिन्ता उसे हो सकती है, तुम्हें नहीं हो सकती। फिर मैं कर ही क्या सकता हूँ ? ज्यादा-से-ज्यादा उसे डाँट बता सकता हूँ; लेकिन वह डाँट की परवाह न करे और तुर्की-बतुर्की जवाब दे, तो मेरे पास ऐसा कौन-सा साधन है, जिससे मैं उसे ताड़ना दे सकूँ ?’

माँ -‘तुम दो दिन न बोलो, तो देवता सीधे हो जायँ, सामने नाक रगड़े।’

बेटा -‘मुझे इसका विश्वास नहीं है। मैं उससे न बोलूँगा, वह भी मुझसे न बोलेगी। ज्यादा पीछे पङूँगा, तो अपने घर चली जायगी।ट

माँ -‘ईश्वर यह दिन लाये। मैं तुम्हारे लिए नयी बहू लाऊँ।’

बेटा -‘सम्भव है, इसकी भी चची हो।’

(सहसा बहू आकर खड़ी हो जाती है। माँ और बेटा दोनों स्तम्भित हो जाते हैं, मानो कोई बम गोला आ गिरा हो। रूपवती, नाजुक-मिजाज, गर्वीली रमणी है, जो मानो शासन करने के लिए ही बनी है। कपोल तमतमाये हुए

हैं; पर अधरों पर विष भरी मुस्कान है और आँखों में व्यंग्य-मिला परिहास।)

माँ (अपनी झेंप छिपाकर) ‘तुम्हें कौन बुलाने गया था ?’

बहू -‘क्यों, यहाँ जो तमाशा हो रहा है, उसका आनन्द मैं न उठाऊँ ?

बेटा -‘माँ-बेटे के बीच में तुम्हें दखल देने का कोई हक नहीं।’

(बहू की मुद्रा सहसा कठोर हो जाती है।)

बहू -‘अच्छा, आप जबान बन्द रखिए। जो पति अपनी स्त्री की निन्दा सुनता रहे, वह पति बनने के योग्य नहीं। वह पति-धर्म का क ख ग भी नहीं जानता। मुझसे अगर कोई तुम्हारी बुराई करता, चाहे वह मेरी प्यारी

माँ ही क्यों न होती, तो मैं उसकी जबान पकड़ लेती ! तुम मेरे घर जाते हो, तो वहाँ तो जिसे देखती हूँ, तुम्हारी प्रशंसा ही करता है। छोटे से बड़े तक गुलामों की तरह दौड़ते फिरते हैं। अगर उनके बस में हो, तो तुम्हारे लिए स्वर्ग के तारे तोड़ लायें और उसका जवाब मुझे यहाँ यह मिलता है कि बात-बात पर ताने-मेहने, तिरस्कार-बहिष्कार। मेरे घर तो तुमसे कोई नहीं कहता कि तुम देर में क्यों उठे, तुमने अमुक महोदय को सलाम नहीं किया, अमुक के चरणों पर सिर क्यों नहीं पटका ? मेरे बाबूजी कभी गवारा न करेंगे

कि तुम उनकी देह पर मुक्कियाँ लगाओ, या उनकी धोती धोओ, या उन्हें खाना पका कर खिलाओ। मेरे साथ यहाँ यह बर्ताव क्यों ? मैं यहाँ लौंडी बनकर नहीं आयी हूँ। तुम्हारी जीवन- संगिनी बनकर आयी हूँ। मगर जीवन-संगिनी का यह अर्थ तो नहीं कि तुम मेरे ऊपर सवार होकर मुझे जलाओ। यह मेरा काम है कि जिस तरह चाहूँ, तुम्हारे साथ अपने कर्तव्य का पालन करूँ। उसकी प्रेरणा मेरी आत्मा से होनी चाहिए, ताड़ना या तिरस्कार से नहीं। अगर कोई मुझे कुछ सिखाना चाहता है, तो माँ की तरह प्रेम से सिखाये, मैं सीखूँगी,

लेकिन कोई जबरदस्ती, मेरी छाती पर चढ़कर, अमृत भी मेरे कण्ठ में ठूँसना चाहे तो मैं ओंठ बन्द कर लूँगी। मैं अब कब की इस घर को अपना समझ चुकी होती; अपनी सेवा और कर्तव्य का निश्चय कर चुकी होती; मगर यहाँ तो हर घड़ी हर पल, मेरी देह में सुई चुभाकर मुझे याद दिलाया जाता है कि तू इस घर की लौंडी है, तेरा इस घर से कोई नाता नहीं, तू सिर्फ गुलामी करने के लिए यहाँ लायी गयी है, और मेरा खून खौलकर रह जाता है। अगर यही हाल रहा, तो एक दिन तुम दोनों मेरी जान लेकर रहोगे।

माँ – ‘सुन रहे हो अपनी चहेती रानी की बातें ? वह यहाँ लौंडी बनकर नहीं, रानी बनकर आयी है, हम दोनों उसकी टहल करने के लिए हैं, उसका काम हमारे ऊपर शासन करना है, उसे कोई कुछ काम करने कौन कहे, मैं खुद मरा करूँ। और तुम उसकी बातें कान लगाकर सुनते हो। तुम्हारा मुँह कभी नहीं खुलता कि उसे डाँटो या समझाओ। थर-थर काँपते रहते हो।’

बेटा -‘अच्छा अम्माँ, ठंडे दिल से सोचो। मैं इसकी बातें न सुनूँ, तो कौन सुने ? क्या तुम इसके साथ इतनी हमदर्दी भी नहीं देखना चाहतीं। आखिर बाबूजी जीवित थे, तब वह तुम्हारी बातें सुनते थे या नहीं ? तुम्हें प्यार करते थे या नहीं ? फिर मैं अपनी बीवी की बातें सुनता हूँ तो कौन-सी नयी बात करता हूँ। और इसमें तुम्हारे बुरा मानने की कौन बात है ?
माँ -‘हाय बेटा, तुम अपनी स्त्री के सामने मेरा अपमान कर रहे हो ! इसी दिन के लिए मैंने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया था ? क्यों मेरी छाती नहीं फट जाती ?’

(वह आँसू पोंछती, आपे से बाहर, कमरे से निकल जाती है। स्त्री-पुरुष दोनों कौतुक-भरी आँखों से उसे देखते हैं, जो बहुत जल्द हमदर्दी में बदल जाती हैं।)

पति -‘माँ का ह्रदय …’

स्त्री -‘माँ का ह्रदय नहीं, स्त्री का ह्रदय …’

पति -‘अर्थात् ?’

स्त्री -‘ज़ो अन्त तक पुरुष का सहारा चाहता है, स्नेह चाहता है और उस पर किसी दूसरी स्त्री का असर देखकर ईर्ष्या से जल उठता है।’

पति -‘क्या पगली की-सी बातें करती हो ?’

स्त्री -‘यथार्थ कहती हूँ।’

पति -‘तुम्हारा दृष्टिकोण बिलकुल गलत है। और इसका तजरबा तुम्हें तब होगा, जब तुम खुद सास होगी।

स्त्री मुझे सास बनना ही नहीं है। लड़का अपने हाथ-पाँव का हो जाये, ब्याह करे और अपना घर सँभाले। मुझे बहू से क्या सरोकार ?’

पति -‘तुम्हें यह अरमान बिलकुल नहीं है कि तुम्हारा लड़का योग्य हो,तुम्हारी बहू लक्ष्मी हो, और दोनों का जीवन सुख से कटे ?
स्त्री -‘क्या मैं माँ नहीं हूँ ?
पति -‘माँ और सास में क्या कोई अन्तर है ?’

स्त्री -‘उतना ही जितना जमीन और आसमान में है ! माँ प्यार करती है, सास शासन करती है। कितनी ही दयालु, सहनशील सतोगुणी स्त्री हो, सास बनते ही मानो ब्यायी हुई गाय हो जाती है। जिसे पुत्र से जितना ही

ज्यादा प्रेम है, वह बहू पर उतनी ही निर्दयता से शासन करती है। मुझे भी अपने ऊपर विश्वास नहीं है। अधिकार पाकर किसे मद नहीं हो जाता ?मैंने तय कर लिया है, सास बनूँगी ही नहीं। औरत की गुलामी सासों के बल पर कायम है। जिस दिन सासें न रहेंगी, औरत की गुलामी का अन्त हो जायगा।’

पति -‘मेरा खयाल है, तुम जरा भी सहज बुद्धि से काम लो, तो तुम अम्माँ पर भी शासन कर सकती हो। तुमने हमारी बातें कुछ सुनीं ?’

स्त्री -‘बिना सुने ही मैंने समझ लिया कि क्या बातें हो रही होंगी। वही बहू का रोना…’

पति -‘नहीं-नहीं तुमने बिलकुल गलत समझा। अम्माँ के मिजाज में आज मैंने विस्मयकारी अन्तर देखा, बिलकुल अभूतपूर्व। आज वह जैसे अपनी कटुताओं पर लज्जित हो रही थीं। हाँ, प्रत्यक्ष रूप से नहीं, संकेत रूप से। अब तक वह तुमसे इसलिए नाराज रहती थीं कि तुम देर में उठती हो। अब शायद उन्हें यह चिन्ता हो रही है कि कहीं सबेरे उठने से तुम्हें ठण्ड न लग जाय। तुम्हारे लिए पानी गर्म करने को कह रही थीं !

स्त्री (प्रसन्न होकर)-‘सच !’

पति-‘हाँ, मुझे तो सुनकर आश्चर्य हुआ।’

स्त्री -‘तो अब मैं मुँह-अँधेरे उठूँगी। ऐसी ठण्ड क्या लग जायगी; लेकिन तुम मुझे चकमा तो नहीं दे रहे हो ?’

पति -‘अब इस बदगुमानी का क्या इलाज। आदमी को कभी-कभी अपने अन्याय पर खेद तो होता ही है।

स्त्री -‘तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर। अब मैं गजरदम उठूँगी। वह बेचारी मेरे लिए क्यों पानी गर्म करेंगी ? मैं खुद गर्म कर लूँगी। आदमी करना चाहे तो क्या नहीं कर सकता ?’

पति -‘मुझे उनकी बात सुन-सुनकर ऐसा लगता था, जैसे किसी दैवी आदेश ने उनकी आत्मा को जगा दिया हो। तुम्हारे अल्हड़पन और चपलता पर कितना भन्नाती हैं। चाहती थीं कि घर में कोई बड़ी-बूढ़ी आ जाय, तो

तुम उसके चरण छुओ; लेकिन शायद अब उन्हें मालूम होने लगा है कि इस उम्र में सभी थोड़े-बहुत अल्हड़ होते हैं। शायद उन्हें अपनी जवानी याद आ रही है। कहती थीं, यही तो शौक-सिंगार, पहनने-ओढ़ने, खाने-खेलने के दिन थे। बुढ़ियों का तो दिन-भर तांता लगा रहता है, कोई कहाँ तक उनके चरण छुए और क्यों छुए ? ऐसी कहाँ की बड़ी देवियाँ हैं।’

स्त्री -‘मुझे तो हर्षोन्माद हुआ चाहता है।’

पति -‘मुझे तो विश्वास ही न आता था। स्वप्न देखने का सन्देह हो रहा था।’

स्त्री -‘अब आई हैं राह पर।’

पति -‘क़ोई दैवी प्रेरणा समझो।’

स्त्री -‘मैं कल से ठेठ बहू बन जाऊँगी। किसी को खबर भी न होगी कि कब अपना मेक-अप करती हूँ। सिनेमा के लिए भी सप्ताह में एक दिन काफी है। बूढ़ियों के पाँव छू लेने में ही क्या हरज है ? वे देवियाँ न सही,

चुड़ैलें ही सही; मुझे आशीर्वाद तो देंगी, मेरा गुण तो गावेंगी।’

पति -‘सिनेमा का तो उन्होंने नाम भी नहीं लिया।’

स्त्री -‘तुमको जो इसका शौक है। अब तुम्हें भी न जाने दूंगी।’

पति -‘लेकिन सोचो, तुमने कितनी ऊँची शिक्षा पायी है, किस कुल की हो, इन खूसट बुढ़ियों के पाँव पर सिर रखना तुम्हें बिलकुल शोभा न देगा।’

स्त्री -‘तो क्या ऊँची शिक्षा के यह मानी हैं कि हम दूसरों को नीचा समझें ? बुङ्ढे कितने ही मूर्ख हों; लेकिन दुनिया का तजरबा तो रखते हैं। कुल की प्रतिष्ठा भी नम्रता और सद्व्यवहार से होती है, हेकड़ी और रुखाई

से नहीं।

पति -‘मुझे तो यही ताज्जुब होता है कि इतनी जल्द इनकी कायापलट कैसे हो गयी। अब इन्हें बहुओं का सास के पाँव दबाना या उनकी साड़ी धोना,या उनकी देह में मुक्कियाँ लगाना बुरा लगने लगा है। कहती थीं, बहू

कोई लौंडी थोड़े ही है कि बैठी सास का पाँव दबाये।’

स्त्री -‘मेरी कसम ?’

पति -‘हाँ जी, सच कहता हूँ। और तो और, अब वह तुम्हें खाना भी न पकाने देंगी। कहती थीं, जब बहू के सिर में दर्द होता है, तो क्यों उसे सताया जाय ? कोई महाराज रख लो।’

स्त्री -‘(फूली न समाकर) मैं तो आकाश में उड़ी जा रही हूँ। ऐसी सास के तो चरण धो-धोकर पियें; मगर तुमने पूछा, नहीं, अब तक तुम क्यों उसे मार-मारकर हकीम बनाने पर तुली रहती थीं। पति पूछा, क्यों नहीं, भला मैं छोड़नेवाला था। बोलीं, मैं अच्छी हो गयी थी, मैंने हमेशा खाना पकाया है, फिर वह क्यों न पकाये। लेकिन अब उनकी समझ में आया है कि वह निर्धन बाप की बेटी थीं, तुम सम्पन्न कुल की कन्या हो !’

स्त्री -‘अम्माँजी दिल की साफ हैं। इन्हें मैं क्षमा के योग्य समझती हूँ। जिस जलवायु में हम पलते हैं, उसे एकबारगी नहीं बदल सकते। जिन रूढ़ियों और परम्पराओं में उनका जीवन बीता है, उन्हें तुरन्त त्याग देना उनके लिए कठिन है। वह क्यों, कोई भी नहीं छोड़ सकता। वह तो फिर भी बहुत उदार हैं। तुम अभी महाराज मत रखो। ख्वामख्वाह जेरबार क्यों होंगे, जब तरक्की हो जाय, तो महाराज रख लेना। अभी मैं खुद पका लिया करूँगी। तीन-चार प्राणियों का खाना ही क्या। मेरी जात से कुछ अम्माँ को आराम मिले। मैं जानती हूँ सब कुछ; लेकिन कोई रोब जमाना चाहे, तो मुझसे बुरा कोई नहीं।’
पति -‘मगर यह तो मुझे बुरा लगेगा कि तुम रात को अम्माँ के पाँव दबाने बैठो।’

स्त्री -‘बुरा लगने की कौन बात है, जब उन्हें मेरा इतना खयाल है, तो मुझे भी उनका लिहाज करना ही चाहिए। जिस दिन मैं उनके पाँव दबाने बैठूँगी, वह मुझ पर प्राण देने लगेंगी। आखिर बहू-बेटे का कुछ सुख उन्हें

भी तो हो ! बड़ों की सेवा करने में हेठी नहीं होती। बुरा तब लगता है, जब वह शासन करते हैं और अम्माँ मुझसे पाँव दबवायेंगी थोड़े ही। सेंत का यश मिलेगा।

पति-‘ अब तो अम्माँ को तुम्हारी फजूलखर्ची भी बुरी नहीं लगती। कहती थीं, रुपये-पैसे बहू के हाथ में दे दिया करो।’

स्त्री -‘चिढ़कर तो नहीं कहती थीं ?

पति -‘नहीं, नहीं, प्रेम से कह रही थीं। उन्हें अब भय हो रहा है, कि उनके हाथ में पैसे रहने से तुम्हें असुविधा होती होगी। तुम बार-बार उनसे माँगती लजाती भी होगी और डरती भी होगी एवं तुम्हें अपनी जरूरतों को

रोकना पड़ता होगा। ‘
स्त्री -‘ना भैया, मैं यह जंजाल अभी अपने सिर न लूँगी। तुम्हारी थोड़ी-सी तो आमदनी है, कहीं जल्दी से खर्च हो जाय, तो महीना कटना मुश्किल हो जाय। थोड़े में निर्वाह करने की विद्या उन्हीं को आती है। मेरी ऐसी जरूरतें ही क्या हैं ? मैं तो केवल अम्माँजी को चिढ़ाने के लिए उनसे बार-बार रुपये माँगती थी। मेरे पास तो खुद सौ-पचास रुपये पड़े रहते हैं। बाबूजी का पत्र आता है, तो उसमें दस-बीस के नोट जरूर होते हैं; लेकिन अब मुझे हाथ रोकना पड़ेगा। आखिर बाबूजी कब तक देते चले जायँगे और यह कौन-सी अच्छी बात है कि मैं हमेशा उन पर टैक्स लगाती रहूँ ?’

पति -‘देख लेना, अम्माँ अब तुम्हें कितना प्यार करती हैं।’
स्त्री -‘तुम भी देख लेना, मैं उनकी कितनी सेवा करती हूँ।’

पति -‘मगर शुरू तो उन्होंने किया ?’

स्त्री -‘क़ेवल विचार में। व्यवहार में आरम्भ मेरी ही ओर से होगा। भोजन पकाने का समय आ गया, चलती हूँ। आज कोई खास चीज तो नहीं खाओगे?’

पति -‘तुम्हारे हाथों की रूखी रोटियाँ भी पकवान का मजा देंगी।’

स्त्री -‘अब तुम नटखटी करने लगे।’

समाप्त।